
भारत केवल एक भूखंड नहीं, यह आध्यात्मिक चेतना का केंद्र है। यह वह पुण्यभूमि है जहाँ हर युग में संत, महात्मा, ऋषि-मुनि, और तपस्वी जन्म लेकर मानवता को सत्य, प्रेम, सेवा और समर्पण का मार्ग दिखाते रहे हैं। यहाँ की माटी में तप की सुगंध है, हवाओं में भक्ति की मिठास है और नदियों में आत्मा की शुद्धि का रस। इस पावन भूमि पर जन्म लेने मात्र से मनुष्य धन्य हो जाता है, और यदि कोई संत इसी भूमि पर जन्म लेकर समाज को धर्म का मार्ग दिखाए, तो वह कालजयी हो जाता है।
भारत के संत केवल उपदेशक नहीं होते, वे साक्षात जीवन के जीवंत आदर्श होते हैं। उनका जीवन स्वयं एक ग्रंथ होता है—जिसे पढ़कर व्यक्ति मोह से मोक्ष की ओर बढ़ता है। इन संतों की वाणी, उनकी सेवा, उनकी साधना और उनका समर्पण समाज को नई दिशा देता है। ऐसे संतों का जीवन परिचय केवल उनका इतिहास नहीं होता, बल्कि वह प्रत्येक आत्मा को प्रेरणा देने वाला प्रकाशपुंज होता है।
राजस्थान की तपोभूमि ने भी अनेक दिव्य संतों को जन्म दिया है, जिनमें से एक तेजस्वी नाम है — स्वामी जगरामपुरी जी महाराज का। ये न केवल तारातरा मठ की महिमा को आगे बढ़ाने वाले संत हैं, बल्कि उन्होंने अपने जीवन से यह सिद्ध कर दिखाया कि सच्चा साधक केवल आत्मकल्याण ही नहीं करता, बल्कि समाज का मार्गदर्शक भी बनता है।
आईए, ऐसे ही एक दिव्य संत स्वामी जगरामपुरी जी महाराज के पावन जीवन की झलक पाते हैं, जिन्होंने अपने तप, ज्ञान और सेवा से लाखों लोगों का जीवन बदल दिया |
तारातरा मठ के पहले महंत श्री जैतपुरी जी महाराज का गोलिया जेतमाल जाना
तारातरा मठ के पहले महंत श्री जैतपुरी जी महाराज झोली फिरते-फिरते गोलिया जेतमाल गांव में रामदान जी सारण के घर पधारे। स्वामीजी ने रात्रि विश्राम वहीं किया। उनकी सेवा के लिए रामदान जी बार-बार कन्याओं को भेज रहे थे, तब स्वामीजी ने रामदान जी से कहा, पुत्र को भेजो। इस पर रामदान जी ने उत्तर दिया, स्वामीजी, मेरे कोई पुत्र नहीं हैं, यदि आपके आशीर्वाद से यह मनोकामना पूर्ण हो जाए तो कृपा होगी।
तब संध्या का समय था। स्वामीजी ने संध्या वंदना की और उसके पश्चात रामदान जी व उनकी धर्मपत्नी वीरोंदेवी को बुलाया और धूप की भभूती प्रदान की। उस समय स्वामीजी के साथ दो शिष्य—श्यामपुरी जी और सुराजपुरी जी—भी उपस्थित थे। स्वामीजी ने पूछा, चौधरी के घर सेवा करने कौन जाएगा?” श्यामपुरी जी ने कहा, बापजी, मैं आपके साथ रहकर सेवा करूँगा। सुराजपुरी जी ने भी विनम्र भाव से कहा, मैं आपके आदेश का पालन करूँगा। स्वामीजी ने दोनों को आशीर्वाद दिया और भभूती प्रदान की।
प्रातःकाल ब्रह्मवेला में सुराजपुरी जी ने वहीं समाधि ले ली। स्वामीजी ने रामदान जी से कहा, मेरी अमानत तुम्हें दे रहा हूँ। जब तुम्हारा वंश आगे बढ़े, तब इस अमानत को तारातरा मठ को लौटा देना। ठीक नौ माह बाद तुम्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी। उसका नाम कुलदेवी वाकल माता के अनुसार ‘बांकाराम’ रखना।
स्वामी जी के वचनों के अनुसार पुत्र का जन्म हुआ और नाम बांकाराम रखा गया। समय बीतता गया और स्वामी जी की भविष्यवाणी पूरी होती गई। स्वामीजी के कहे अनुसार तीन पीढ़ी बाद डूंगराराम जी, धर्मपुरी जी को घर लेकर गए, धूप करवाया और अपने सभी भाइयों और परिवार की मौजूदगी में धर्मपुरी जी को कहा— मेरे बड़े पुत्र के बाद जो पुत्र जन्म लेगा, उसको मैं आपके चरणों में भेंट चढ़ाऊंगा व तारातरा मठ का उधार वापस दूंगा।
स्वामी जगरामपुरी जी महाराज का जन्म एवं बाल्यकाल
स्वामी जगरामपुरी जी महाराज का जन्म विक्रम संवत् 2006 की भाद्रपद अष्टमी को गोलिया जेतमाल के बाकोणी परिवार में हुआ। इनके पिता रामदान जी सारण और माता वीरोंदेवी थीं। विक्रम संवत् 2007 में पूरा परिवार बालक जगरामपुरी जी को लेकर तारातरा मठ पहुँचा और अल्पायु में ही धर्मपुरी जी के चरणों में उन्हें अर्पित कर दिया गया।
जैसे-जैसे उम्र बढ़ी, जगरामपुरी जी ने आध्यात्मिक ज्ञान की ओर रुचि दिखाई। विक्रम संवत् 2014 में उन्होंने धर्मपुरी जी और चेतनपुरी जी के सान्निध्य में सतगुरुदेव का उपदेश ग्रहण किया।
शिक्षा व योग्यता
प्रारंभिक शिक्षा स्वामीजी ने तारातरा मठ में पंचमी तक प्राप्त की। इसके पश्चात छठी और सातवीं कक्षा की पढ़ाई बाड़मेर से की। विक्रम संवत् 2022 में उन्होंने मोहनपुरी जी और चेतनपुरी जी की आज्ञा से झझर (हरियाणा) स्थित संस्कृत महाविद्यालय गुरुकुल से प्रथमा, मध्यमा एवं शास्त्री परीक्षाएँ उत्तीर्ण कीं। तत्पश्चात श्री लाल बहादुर संस्कृत कॉलेज, नई दिल्ली और दरभंगा विश्वविद्यालय, बिहार से ‘वेदविशारद’ की उपाधि प्राप्त की।
स्वामी जी की अन्य विशेषताएँ
स्वामी जगरामपुरी जी न केवल आध्यात्मिक क्षेत्र में बल्कि शारीरिक दृढ़ता में भी अद्वितीय हैं। वे कुश्ती के अच्छे नेशनल लेवल के खिलाड़ी हैं। उनकी यह विशेषता दर्शाती है कि उन्होंने योग, ध्यान, शिक्षा और शारीरिक पराक्रम सभी क्षेत्रों में सिद्धि प्राप्त की।
धर्म कार्यों में योगदान
विक्रम संवत् 2032 से लेकर 2008 तक स्वामीजी मोहनपुरी जी के सान्निध्य में तारातरा मठ में रहकर अपनी विधा का प्रचार-प्रसार करते रहे। आध्यात्मिक ज्ञान, संस्कारों, सेवा और त्याग के आदर्शों को लेकर वे जनता के बीच प्रेरणा बने रहे।
धर्मपुरी जी धूणे की स्थापना
स्वामी जगरामपुरी जी महाराज ने तारातरा मठ की एक प्रमुख शाखा की स्थापना पनोणियों का तला में की। यह शुभ कार्य विक्रम संवत् 2066, मिगसर की पंचमी, बुधवार दिनांक 3 दिसम्बर 2008 को सम्पन्न हुआ। इस अवसर पर कई प्रतिष्ठित मठों के मठाधीश पधारे:
- चोह्टन मठ के श्री श्री 1008 जगदीशपुरी जी महाराज
- परेऊ मठ के श्री श्री 1008 ओंकार भारती जी महाराज
- भियाड़ मठ के श्री श्री 1008 मगनपुरी जी महाराज
- लीलसर धाम के श्री श्री 1008 मोटनाथ जी महाराज
इन सभी ने मिलकर दीप प्रज्वलित कर इस धूणे की विधिवत स्थापना की। आसपास के 80 से 90 गांवों से हजारों श्रद्धालु इस शुभ अवसर पर शामिल हुए।
भव्य मंदिर का निर्माण
स्वामी जगरामपुरी जी द्वारा इसी स्थान पर एक भव्य मंदिर निर्माण की योजना बनाई गई, जिसका कार्य वर्ष 2008 में आरंभ हुआ। वर्षों की मेहनत और साधना के बाद कारीगरों और सेवकों की सहायता से यह मंदिर जनवरी 2023 में पूर्ण हुआ। मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा का आयोजन 30 जनवरी 2023 से 3 फरवरी 2023 तक पांच दिवसीय महा सम्मेलन के रूप में किया गया। इस अवसर पर स्वामीजी का जीवित भंडारा भी आयोजित हुआ।
इस पंचदिवसीय महोत्सव में लाखों श्रद्धालु देशभर से पधारे और स्वामीजी के सान्निध्य में आध्यात्मिक लाभ प्राप्त किया।

धार्मिक उत्सव और मेलों की परंपरा
पर प्रतिवर्ष निम्न अवसरों पर मेले एवं धार्मिक आयोजन होते हैं:
- चैत्र सुदी नवमी
- भादव सुदी नवमी
- माघ सुदी नवमी
- महाशिवरात्रि
- नवरात्रि में विशाल रात्रि जागरण
इन अवसरों पर हजारों भक्त दर्शन एवं सेवा हेतु आते हैं। दिन में पूजा-अर्चना और रात को भजन-कीर्तन का आयोजन होता है। यह स्थान अब एक शक्तिपीठ के रूप में प्रसिद्ध हो चुका है।