
धर्मपुरी महाराज के पश्चात तारातरा मठ की आध्यात्मिक धरा पर एक ऐसे संत ने पदार्पण किया, जिन्होंने अपने योग, त्याग, और करुणा से मठ को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया। ये थे – योगसिद्ध, परोपकारी, तेजस्वी और आध्यात्मिक महापुरुष श्री महंत मोहनपुरी जी महाराज।
भारतवर्ष की पुण्यभूमि पर समय-समय पर अनेक संतों ने जन्म लिया, जिन्होंने अपने तप और त्याग से धर्म और संस्कृति की रक्षा की। ठीक उसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए पश्चिम राजस्थान के बाड़मेर जिले के समीपवर्ती गांव तारातरा में एक दिव्य आत्मा ने जन्म लिया, जिनका नाम इतिहास में “मालाणी के महादेव” के रूप में अमर हो गया।
सन 1935 (वि.सं. 1996) में तारातरा गांव में जन्मे मोहनपुरी जी महाराज, एक धार्मिक और सदाचारी परिवार में उत्पन्न हुए। उनके पिता श्री चूतरा राम राईका धर्मनिष्ठ और भक्तों के सेवाभावी थे, और माता श्री रंभा देवी एक सौम्य, त्यागमयी महिला थीं।
मोहनपुरी जी का जन्म अपने आप में अलौकिक घटना थी। जन्म के बाद बालक निरंतर रोता रहा। परिजनों ने हर संभव उपाय किए, परंतु बालक शांत नहीं हुआ। जब कोई मार्ग नहीं सूझा, तो परिजन उन्हें लेकर सीधे मठ के पूज्य धर्मपुरी जी महाराज के पास पहुँचे।
जैसे ही धर्मपुरी महाराज ने उस बालक की ओर दृष्टि डाली, उन्होंने सहज ही कह दिया—
यह बालक साधारण नहीं है। यह पूर्वजन्मों का तपस्वी है। इसकी आत्मा संन्यास और लोककल्याण की राह पर चलने को व्याकुल है, इसलिए इसका रुदन रुक नहीं रहा।
माता-पिता ने श्रद्धा से बच्चे को धर्मपुरी जी के चरणों में समर्पित कर दिया और कहा—
गुरुदेव, यह बालक अब आपका है। इसके जीवन का मार्ग आप ही तय करें।
यह कहते ही चमत्कार हुआ — बालक शांत हो गया।
चार वर्ष की अल्प आयु में ही वह बालक संत जीवन के मार्ग पर अग्रसर हो गया। धर्मपुरी जी महाराज के संरक्षण में रहकर मोहनपुरी जी ने न केवल धार्मिक शिक्षा ग्रहण की, बल्कि योग विद्या, ध्यान और आत्मसाधना में भी गहरी रुचि ली।
उनकी बाल्यावस्था में ही जो आध्यात्मिक चमक थी, वह सामान्य नहीं थी। यह स्पष्ट संकेत था कि यह आत्मा कई जन्मों की तपस्या और साधना के साथ जन्मी है। उनके जीवन की शुरुआत ही उन उच्च गुणों से हुई, जो केवल तपस्वियों में देखे जाते हैं।
भारत भ्रमण : योगमार्ग की ओर पहला कदम
गुरु धर्मपुरी महाराज की छत्रछाया में रहते हुए बाल संत मोहनपुरी जी का जीवन अध्यात्म और योग के ज्ञान से समृद्ध होता चला गया। जब वे बारह वर्ष के हुए, तब गुरुवर ने उन्हें संपूर्ण भारत भ्रमण और साधना हेतु आशीर्वादपूर्वक आज्ञा प्रदान की।
यही से आरंभ हुआ एक महान योगी का तपमय जीवन। गिरनार की कंदराओं से लेकर आबूराज, देव दरबार, काशी, और हरिद्वार जैसे पवित्र तीर्थस्थलों की गुफाओं में उन्होंने गहन तप किया। यह बारह वर्षों की तपस्या केवल एक यात्री की यात्रा नहीं थी, यह आत्मा की शुद्धि, आत्मज्ञान और योग की चरम सीमा तक पहुँचने का परिश्रम था।
पुनः आगमन और गुरुवर की परख
जब स्वामी मोहनपुरी जी बारह वर्षों की कठोर साधना पूर्ण कर तारातरा लौटे, तो उनका स्वागत तो हुआ, लेकिन उनके ज्ञान और योगशक्ति की परख अभी शेष थी। मठ में एक अड़ियल और अत्यंत खतरनाक घोड़ा था, जिसे कोई भी संभाल नहीं सकता था। वह केवल धर्मपुरी जी की उपस्थिति में ही शांत रहता था और हमेशा चारों पैरों से बाँधकर रखा जाता था। उसे खाना-पानी भी एक छोटी खिड़की से दिया जाता था। एक दिन गांव के प्रतिष्ठित चौधरीजन धर्मपुरी जी के पास बैठे हुए थे। उन्होंने स्वामी मोहनपुरी जी की योगसाधना की वास्तविकता जानने की इच्छा प्रकट की। धर्मपुरी जी मुस्कराए और बोले, आइए उसकी परीक्षा लेते हैं। उन्होंने मोहनपुरी जी से कहा: उस घोड़े को कुएं से पानी पिला लाओ।
गुरु का आदेश मिलते ही स्वामीजी बिना एक शब्द बोले उस घोड़े की ओर बढ़े। घोड़े को खोला, लगाम हाथ में ली और बिना किसी झिझक के उसे कुएं तक ले गए। आश्चर्य की बात यह थी कि वह हिंसक घोड़ा पूर्णतः शांत होकर, एक मेमने की भांति स्वामीजी के पीछे-पीछे चल पड़ा। यह उनके जीवन की पहली सार्वजनिक परख थी, जिसमें उन्होंने सहजता और अद्भुत संतशक्ति का परिचय दिया। इसके कुछ वर्षों बाद, विक्रम संवत् 2017 की चैत्र शुक्ल नवमी (मंगलवार) को स्वामी मोहनपुरी जी ने महंत की गद्दी पर पदारूढ़ होकर मठ की बागडोर संभाली।
एक पुत्र की याचना और चमत्कारी आशीर्वाद
राजस्थान के जालोर जिले के सांचौर तहसील के खिरुड़ी गाँव में रहने वाले श्री छोगसिंह राजपुरोहित एक समृद्ध और प्रतिष्ठित परिवार से थे। धन-दौलत, मान-सम्मान, सब कुछ था — परंतु संतान सुख का अभाव उनके जीवन को अधूरा कर रहा था। उन्होंने मंदिरों में पूजा करवाई, डॉक्टरों की सलाह ली, लेकिन वर्षों तक संतान नहीं हुई। उन्हीं दिनों एक देवासी अपने पशुओं को चराने उनके खेत में आता था। छोगसिंह जी उसकी मदद किया करते थे। धीरे-धीरे उस देवासी ने छोगसिंह जी की निराशा को भाँप लिया। एक दिन साहस जुटाकर उसने पूछ ही लिया: आपके पास सब कुछ है, फिर भी मन इतना बुझा-बुझा क्यों है छोगसिंह जी ने अपनी व्यथा सुनाई, तब वह देवासी बोला: आप एक बार तारातरा मठ के दाता — स्वामी मोहनपुरी जी महाराज के दर्शन करिए, समाधान वहीं मिलेगा।
छोगसिंह जी तुरंत उस देवासी के साथ तारातरा की ओर रवाना हो गए। पहले वे बाछड़ाऊ गाँव पहुँचे, फिर वहाँ से पैदल गोलियार आए और रात वही विश्राम किया। अगली सुबह पैदल ही तारातरा मठ के लिए चल पड़े। पहली बार लंबी दूरी पैदल तय करने के कारण उनके पैरों में छाले पड़ गए, फिर भी बिना थके वे मठ पहुँचे। स्वामी मोहनपुरी जी के दर्शन किए और उनके चरणों में बैठ गए। स्वामीजी ने उनके पैरों की दशा देखकर पूछा: आपके पैरों की यह स्थिति कैसे हुई | देवासी ने सारी बात कह सुनाई। तब छोगसिंह जी ने चरणों में झुककर विनती की गुरुदेव, मुझे पुत्र की प्राप्ति का वरदान दीजिए। तभी स्वामीजी के श्रीमुख से आशीर्वचन नहीं, बल्कि “वचन” निकला: आज से ठीक नौ माह बाद तुम्हारे घर पुत्र का जन्म होगा। और हुआ भी यही। नौ माह बाद छोगसिंह जी को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। उस बालक के जन्म की खुशी में वे पूरे परिवार सहित तारातरा मठ पहुँचे और स्वामीजी से बालक का नामकरण करने की प्रार्थना की। स्वामीजी ने उस बालक का नाम “जैतसिंह” रखा। खुशी स्वरूप छोगसिंह जी ने भाद्रपद शुक्ल द्वितीया के दिन मठ में भव्य मेले का आयोजन करवाया और आभार स्वरूप एक श्वेत घोड़ी स्वामी मोहनपुरी जी को भेंट की।
जैन दंपत्ति को पुत्र रत्न का दिव्य आशीर्वाद
एक बार परम पूज्य स्वामी मोहनपुरी जी पतरासर गाँव में एक भक्त देवासी के निवास पर आयोजित रात्रि जागरण में पधारे हुए थे। आध्यात्मिक संगीत और भजन संध्या के बीच भक्तजन भक्ति में लीन थे। उसी दौरान एक श्रद्धालु प्रकाश जी जैन वहाँ पहुँचे। उन्होंने स्वामीजी के चरणों में साष्टांग प्रणाम किया और अपनी हृदय-व्यथा सुनाई।
प्रकाश जी ने बताया कि उनका इकलौता पुत्र अल्पायु में ही इस संसार से विदा हो गया, और अब उनका जीवन निराशा में डूब गया है। जागरण की पूरी रात उन्होंने वहाँ बिताई, भक्ति का रस लिया और फिर प्रातःकालीन वेला में स्वामीजी से विदा लेकर अपने निवास स्थान बाड़मेर लौट गए। रात्रि के तीसरे पहर, लगभग तीन से चार बजे का समय था। सभी भक्त भजन की धुन में मग्न थे, तभी स्वामी मोहनपुरी जी शांत मुद्रा में बैठे हुए अचानक बोले
मुझे अभी गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए बाड़मेर जाना है। आप सब जागरण जारी रखें। इतना कहकर वे उसी क्षण देवासी घर स्वामी को साथ लेकर बाड़मेर की ओर पैदल ही रवाना हो गए। बाड़मेर पहुँचकर जब वे प्रकाश जी के घर पहुँचे, तो देखा कि वह गहरी चिंता और पीड़ा में डूबे हुए बैठे हैं। स्वामीजी ने स्नेहपूर्वक पूछा: प्रकाश जी, इतनी उदासी क्यों प्रकाश जी ने नम्रता से उत्तर दिया बापजी, मेरा बेटा छोटी उम्र में चल बसा। अब जीवन की राह अकेली और सुनसान लगती है, कोई सहारा नहीं है। स्वामीजी ने एक नारियल मँगवाया, उसे विधिपूर्वक फोड़ा और उसके भीतर से बीज निकालकर प्रकाश जी को सौंपते हुए कहा इसे अपनी पत्नी को खिला देना। फिर उन्होंने तुरही बजाई और घोषणा की आज से ठीक नौ माह बाद तुम्हारे घर पुत्र जन्म लेगा। यह कोई साधारण आशीर्वचन नहीं था, बल्कि एक दिव्य वचन था — जो समय आने पर पूर्ण हुआ। ठीक नौ महीने बाद प्रकाश जी के घर एक सुंदर पुत्र रत्न का जन्म हुआ। प्रकाश जी ने इस चमत्कारी प्रसाद के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए स्वामी मोहनपुरी जी को सपरिवार आमंत्रित किया और निवेदन किया कि वे बालक का नामकरण करें। स्वामीजी ने उस बालक को “खेता” नाम प्रदान किया। अपनी मन्नत के पूर्ण होने पर, प्रकाश जी ने भाद्रपद शुक्ल द्वितीया के शुभ अवसर पर तारातरा मठ में भव्य मेले का आयोजन करवाया, जिसमें दूर-दराज़ से श्रद्धालु शामिल हुए और गुरु की महिमा का गुणगान हुआ।
सोङियार में चमत्कारी खुंटा धूणे की स्थापना
विक्रम सवत् 2023 में बाड़मेर जिला अकालग्रस्त था | स्वामीजी अपनी गायों को लेकर चलते-चलते लीलसर और सोङियार की सीमा पर अपने ध्यान में बैठ गए | गयों की निगरानी शिष्य कर रहे थे | गांव के एक चौधरी ने आकर स्वामीजी के शिष्यों को अपने खेत में गायें चराने और यहा से ले जाने को कहा | शिष्यों ने आकर यह बात स्वामीजी को बताई | स्वामीजी बात सुनकर फिर ध्यान में बैठ गये | चौधरी वापस अपने घर पंहुचा तो देखा कि पुरे घर में सांप, बिच्छू, परङ, चारों तरफ चल रहे | चौधरी की पत्नी बोली आपने स्वामीजी को कुछ बोला तोह नही चौधरी बोला स्वामीजी को नही बोला शिष्यों को यहा गायों चराने से मना किया यहा से जाने को कहा चौधरी की पत्नी बोली जाओ स्वामीजी से श्रमा मांगो चौधरी तुरन्त समझ गया वापस दोड़ता-दोड़ता स्वामीजी के पास आया | स्वामीजी के पास आया तो स्वामीजी बोले मेरे ढोलिए पर तावङ आ गया है | उसे छाया में ले आओ चौधरी ढोलिए के पास गया देखा तो ऊपर कोबरा सांप बैठा चौधरी स्वामीजी से बोला घर गया वहा सांप यहा सांप चारों और देखें वहा सांप चौधरी स्वामीजी के पैरो में पड़ कर क्षमा याचना करने लगा मुझे माफ़ मेरी बुधि भ्रमित हो गई मैने आपकी गायों को चराने से मना किया मुझे माफ करो | स्वामीजी बोले अब क्या करेगा चौधरी बोला जो आपका आदेश तब स्वामीजी ने कहा चार बीघा जमीन गोंचर के लिए छोड़ चौधरी ने उसी वक्त चार लोगों के सामने चार बीघा जमीन गोंचर के लिए दी | उसी वक्त सारे सांप गायब | वहा पर रात को गायों डरती थी शिष्य स्वामीजी से बोले स्वामीजी रोशनी करनी पड़ेगी गायों डरती है | वहा पर पास में एक शुखा हुआ कुम्ठे का एक खुंटा था | उसे उखाड़ने को कहा भक्तजनों ने उससे उखाड़ने का प्रयास किया लेकिन नही उखाड़ पाए तब बापजी बोले आप सब दूर हो जाओ स्वामीजी ने कहा में मंत्र बोलता हू आप बल लगाओ तब चार चौधरी एक स्वामीजी ने मिल कर उसको गिराया | उससे उस जगह से दूसरी जगह लगाया वही खुंटा आज हरे वृक्ष के रूप में आज भी विराजमान है | उस आश्रम का नाम मोहनपुरीजी का धूणा व चमत्कारी खुंटा पड़ा | इस स्थान पर भक्त अपनी मनोकामना लेकर मन्नत मागने आते है और पूरी भी होती है |
कैसर से पीड़ित का आध्यात्मिक उपचार
मानाराम सुथार निवासी बाड़मेर कैसर से पीड़ित था | जब मानाराम को इस बीमारी का पता चला तो चिंता में पड़ गए | इस बीमारी का कोई इलाज नही था | फिर भी उनको इलाज के लिए अहमदाबाद सिविल हास्पिटल में इलाज करवाया | फिर भी कोई लाभ नही हुआ | डॉक्टरो ने बताया की कैसर लास्ट स्टेज पे है अब आप घर पे आराम कीजिए | थोड़े दिन बाद में उनके एक मित्र ने उनको तारातरा मठ के दर्शन व स्वामीजी से मिलने को कहा | तोह फिर तारातरा मठ आए यहा आए तोह स्वामीजी मठ में ढोलिए पे विराजमान थे | आकर के दर्शन कर स्वामीजी के पास जाकर बैठ गए | अपने रोग के बारे में स्वामीजी को बताया स्वामीजी भोजन कर रहे थे | स्वामीजी ने ह्सते हुए कहा पहले दवाइयां को बहार फेक के आओ | मानाराम ने बिना किसी संकोच के स्वामीजी की आज्ञा का पालन किया दवाइयां फेक दी | दवाइयां फेकने के बाद स्वामीजी से अरदास की प्रभु आपने दवाइयां फिकवा दी अब इस का इलाज बताए | स्वामीजी भोजन करते हुए बोले जिस प्रकार में “बाजरे की रोटी व राब-दही भोजन प्रसाद के रूप में कर रहा हू तुम भी करो | मानाराम विचार करने लगे डॉक्टर ने खटी खाने से मन किया है | स्वामीजी ग्रहण करने को कह रहे है | परन्तु स्वामीजी के वचनों पे विश्वास कर के भोजन किया | उसके बाद कुछ समय तक स्वामीजी के पास बैठे रहे फिर घर जाने की आज्ञा मांगी तब स्वामीजी बोले “जाओ लहर करो आनन्द करों” आपकी बीमारी जड़ से खत्म हो जाएगीं | मानाराम पूर्ण स्वस्थ है और अपना जीवन का पूर्ण श्रेय स्वामीजी के प्रति समर्पित है |
स्वामी मोहनपुरी जी महाराज का दिव्य लोकान्तरण
भाद्रपद शुक्ल सप्तमी का पावन दिन था। तारातरा मठ में सूर्य की किरणें हल्की सुनहरी आभा के साथ उतर रही थीं। उसी शांत वातावरण में परम पूज्य स्वामी मोहनपुरी जी महाराज अपने दिव्य आसन पर विराजमान थे। प्रातःकालीन बेला में उन्होंने मठ में सेवकों से मतीरा (तरबूज) मँगवाया और उसी का अल्पाहार ग्रहण किया।
भक्तों की भीड़ मठ में उमड़ रही थी। कोई चरण वंदना कर रहा था, तो कोई बस दूर से ही उनके दर्शन कर अपने जीवन को धन्य मान रहा था। स्वामीजी सहज भाव से सभी से संवाद कर रहे थे। दोपहर का समय हो चला था — लगभग दो बजने को थे। बातों-बातों में ही स्वामीजी ने गहरी, लंबी साँस ली और ध्यान की मुद्रा में लीन हो गए। उसी क्षण उनकी आत्मा शांत, निर्विकार भाव से परमात्मा में विलीन हो गई।
इस प्रकार एक युग पुरुष, एक सिद्ध योगी, एक त्रिकालदर्शी संत — स्वामी मोहनपुरी जी महाराज — ने विक्रम संवत् 2072 की भाद्रपद शुक्ल सप्तमी, सोमवार, 20 सितम्बर 2015 को तारातरा मठ में लोक लीला का अंत किया।
स्वरूप के दो रूप, एक साधु — एक भैरव
स्वामीजी का व्यक्तित्व रहस्यपूर्ण और अत्यंत प्रभावशाली था। वे वर्ष में दो विशिष्ट रूप धारण करते थे:
- बालरूप – एकदम सरल, निश्छल, बालक की भांति हँसमुख और सहज। इस रूप में वे भक्तों से खुलकर संवाद करते, सरलता से सबका मार्गदर्शन करते।
- भैरव रूप – जब यह रूप धारण करते, तो एक गहन तेज और भयमयी आभा उनके चारों ओर फैल जाती। भक्त उनके समीप जाने में संकोच करते — यह रूप साधना की विशेष विध्या का प्रतीक था। कोई भी कुछ कहने से पहले दस बार सोचता, क्योंकि यह वह स्वरूप था जहाँ केवल चेतना की भाषा चलती थी।
विद्याओं के अधिपति, मालाणी के महादेव
स्वामी मोहनपुरी जी महाराज के पास अनेक दिव्य विद्याएँ थीं, जिनका उपयोग वे अपने आत्मकल्याण एवं भक्तों के मार्गदर्शन हेतु करते थे। साधना के उच्चतम शिखरों को छूकर उन्होंने स्वयं को परमात्मा में विलीन कर लिया — यही कारण है कि उन्हें “त्रिकालदर्शी मालाणी के महादेव” के रूप में जाना जाता है।
स्वामीजी की स्मृति में हर वर्ष भाद्रपद शुक्ल अष्टमी के पावन अवसर पर तारातरा मठ में विशाल मेला आयोजित किया जाता है। इस मेले में लाखों श्रद्धालु देशभर से उमड़ते हैं, स्वामीजी को भोग अर्पित करते हैं और उनकी समाधि पर पुष्पांजलि चढ़ाते हैं।
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