
बाबा रामदेवजी जी का सम्पूर्ण इतिहास :-
बाबा रामदेवजी राजस्थान के प्रसिद्ध लोक देवता हैं राजस्थान के जैसलमेर जिले में पोखरण तहसील में रामदेवरा में बाबा रामदेवजी का विशाल समाधी स्थल हैं | वही रामदेवरा से 120 किलोमीटर दूर बारमेर जिले में उन्डू काश्मीर गाँव में बाबा रामदेवजी का जन्म स्थान पे भव्य मन्दिर बना हुआ हैं | बाबा रामदेवजी को राजस्थान गुजरात में लोक देवता के रूप में पूजा जाता हैं | मध्यप्रदेश उत्तरप्रदेश महारास्ट्रा हरियाणा पंजाब में भी बाबा रामदेवजी की पूजा की जाती हैं | बाबा रामदेवजी के रूणीशा में दूर-दूर से श्रद्धालु अपनी मनोकामना लेके पैदल बाबा की पूजा करने के लिए आते हैं यहाँ पर जो भक्त मनसे बाबा की आराधना करते हैं उनकी मनोकामना अवश्य पूर्ण होती हैं| बाबा रामदेवजी का मेला प्रति वर्ष भादों सुदी 2 से 11 तक लगता हैं इस समय यहाँ कई लाख लोग रामदेवजी की पूजा करने आते हैं | बाबा रामदेवजी निर्धनों को धन निपुत्रो को पुत्र अन्धो को आखोँ अनेक प्रकार की मनोकामना पुर्ण करते हैं यह मेला बाबा रामदेव नाम से विशव विख्यात हैं | बाबा रामदेवजी एक मात्र ऐसे देवता है जिनको हिन्दू मुस्लिम दोनों पूजते हैं | बाबा रामदेवजी को रामदेव रूणीशा धनी नेजा धारी लीलेरी असवारी मुस्लिम रामसा पीर ऐसे अनेक नाम से पुकारा जाता है |
बाबा रामदेवजी का इतिहास
आज से हजार वर्ष पहले चंद्रवंशी वंश के अनंगपाल नाम के राजा हुए | राजा अनंगपाल बड़े वीर थे और इनके राज्य मे प्रजा बहुत सुखी रहती थी | इसी राजा ने तंवर वंश को चलाया यह वंश हमेशा से भगवान श्री कृष्ण की पूजा करते थे | राजा अनंगपाल की पाचवीं पिढी में रणसी जी हुए रणसी जी के आठ पुत्र हुए | उनके जन्म के कुछ वर्ष बाद रणसी की मत्यु हो गयी | यह बात सुनकर अल्लाउदी्न खिलजी ने नरेना पर आक्रमण कर दिया इस युद्ध में रणसी जी के छ पुत्र मारे गये | और अजमल जी, धनरूप जी दोनों भाई वहा से युद्ध छोड़कर भाग गये | सन् 1375 में बाङमेर जिले के शिव तहसील में ऊडू-काश्मीर गांव की स्थापना की और पुरे क्षेत्र के लोग अजमलजी का प्रजा के प्रति सेवाभाव देखकर लोग उन्हें सहाने लगे धीरे धीरे उनकी कीर्ति पुरे मारवाड़ में फेल गई | उस समय जैसलमेर में राजा जयसिंह का राज था राज के आगन एक कन्या का जन्म हुआ राजा ने कन्या के नामकरण के लिए बड़े बड़े ज्योतिष और ब्राह्मणों ने बुलाया ज्योतिष और ब्राह्मणों ने मिलकर कन्या का नाम मैणादे रखा | राजा ने ज्योतिष और ब्राह्मणों से मैणादे के भाग्य देखने को कहा ज्योतिष कुण्डली और ग्रहों की दिशा देखकर चोक गए | बोले हे राजन कन्या बड़ी भाग्यशाली होगीं सारा संसार इसको मैणादे के नाम से जानेगा इनके नाम की गाथाएँ गाई जाएगी | समय बिता मैणादे बड़ी हुई राजा ने मैणादे के विवाह के बारे में राज दरबार बुलाया सभी मत्रियो और राज दरबारियों से बात की तभी एक मत्री ने बताया राजन राजकुमारी का विवाह रणसी जी के पुत्र अजमल जी के साथ हो जाये तो कैसा रहेगा | अजमल जी एक न्यायपूर्ण और धर्मनिरपेक्ष राजकुमार हैं उनके सरसे सब जगह हो रहे हैं | उन से अच्छा वर राजकुमारी के लिए कोई होही नही सकता| मंत्री की बात सुनकर राजा प्रसन होकर ये बात रानी को बताई रानी ये बात सुनके खुस हुई | राजा ने पंडित बुलाकर लग्न लिखकर ऊडू-काश्मी अजमल जी और धनरूप जी के पास भेजा धनरूप जी ने बड़े हरस के साथ पंडित का आदर सत्कार किया और लग्न स्वीकार कर लिया सन् 1376 में वैशाख शुक्ल अक्षय तृतीय को मैणादे का अजमल जी के साथ विवाह हुआ | अजमल जी के विवाह के 4 साल बाद 1380 में धनरूप जी का विवाह हुआ | अजमल जी हमेशा अपनी प्रजा के बारे में ही सोचते थे कमी थी तोह केवल संतान की कुछ समय बाद धनरूप जी के दो पुत्रीया और एक पुत्र हुआ लेकिन होनी को कोन टाल सकता हैं | पुत्र थोड़े दिन ही जीया वो चला गया | अजमल जी बहुत दुखी रहने लगे कुल को आगे बढ़ाने वाला कोई नही है | वो हमेशा द्वारकाधिश की पूजा करते और प्राथना करते हे उनके सेवा में ही लीन रहने लगे | कई बार पुत्र की प्राप्ति के लिए द्वारका भी गयें | वही दूसरी और पोखरण के उतर दिशा में पहाड़ी में भैरव राक्षस रहता था उसने आसपास के क्षेत्र में आतंक मचा रखा था |
अजमलजी का द्वारका प्रस्थान
वर्षा ॠतु के समय बारीश होने पर अजमल जी महल से बहार घुमने के लिए निकले तभी बैलो को साथ लेके खेत जोतने जा रहे किसानो को देख अजमलजी बड़े प्रसन हुए तभी किसानों की नजर अजमल जी पे पड़ी वो निरास होकर वापस घरों की और जाने लगे तभी अजमल जी ने आवाज लगाई वापस क्यों जा रहे हो किसी ने कोई जवाब नही दिया बार बार पुछने पर एक किसान बोला हे राजन आप बड़े दयालु और न्यायप्रीय राजा हो भगवान ने आपको सन्तान नही दी है आप नि:पुत्र हो आप को देखलिया अब कोई भी सुभ कार्य हम आरम्भ नही कर सकते| हमें आपके दर्शन हो गए हम खेत जोते गे तोह एक दाना भी नही होगा | इसलिए हम वापस जा रहे है कल खेत जोतने जायेंगे यह बात सुनकर अजमल जी के पैरो के तले जमीन निकल ने लग गई | जिस प्रजा के लिये में दुखी रहता हु वो मेरा मुह तक नही देखना चाहाती | अजमलजी दुखी मन के साथ महल आके रानी मैणादे को बात बताई और बोले भगवान पूजा सब वर्थ है यह पत्थर का भगवान सचमुच का पत्थर हैं | तब राणी मैणादे ने अजमलजी से कहा आप जेसे भक्त को भगवान के प्रति ऐसें सब्द सोभा नही देते अपने इस दुःख का निवारण द्वारकाधिश ही करेंगे | अपन सवेरे ही द्वारका के लिए प्रस्थान करेगें अजमलजी मैणादे की बात से सहमत हो गए | दोनों प्रसाद के लिए लड्डू बना के पैदल यात्रा करके द्वारका पहुचे | वहा भगवान की मूर्ति के सामने खड़े होके कहने लगे भगवान में 26 बार आपके द्वारका की यात्रा कर सुका हू | आप सबकी मनोकामना पूरी करते हो मेरी भी झोली भर दो बार बार पुकारने पर भी भगवान ने दर्शन नही दियें | तभी अजमलजी गुस्से में आके प्रसाद के लड्डू उठाकर भगवान की मूर्ति को दे मारा | आज से आपकी पूजा नही करूँगा | बेहोस हो के गिर गए थोड़ी देर में होस आने पर पुजारी से बोले तेरा द्वारकानाथ कहा रहता हैं | तब पुजारी बोला आपको भगवान के दर्शन करने हैं तोह समुद्र में जाइये | अजमलजी पुजारी से पुसने लगे वाहा जाने का रास्ता कहा से हैं | तब पुजारी अजमलजी को जाहा समुद्र सबसे ज्यादा गैरा था वा लेजा के बोला याहा से जाओ | इतना सुनते ही अजमलजी समुद्र में कूद गए अन्दर देखा तोह सोने की नगरी दिखाई दी | अन्दर जा के देखा तोह भगवान शेषनाग के उपर विश्राम कर रहे अजमलजी भगवान के सरनो में जा के बैठकर बोले हे प्रभु आपको कहा कहा ढूढ़ा अब जाके आपके दर्शन हुए | भगवान बोले हे भक्त उठो तब अजमलजी उठकर खड़े हुए देखा तोह भगवान के सिर पर पट्टी बंधी देख खून बहता देख अजमलजी बोले प्रभु आप तो परब्रह्म हो आपके सिर पर पट्टी क्यों है तब भगवान बोले तेरे जेसे एक भक्त ने मेरे सिर पर लड्डू मारा जिसे सिर से खून निकल ने लगगया इसलिए पट्टी बंधी हैं | अजमलजी को याद आया लड्डू मेने मारा था अजमलजी भगवान के शरणों में बैठ कर रोने लग गये बोले क्षमा करना प्रभु | तब द्वारकानाथ बोले तुमे क्या चाहिए अजमलजी बोले हे प्रभु मेरे राज्य से दूर एक पहाड़ी में भैरव राक्षश रहता है उसने 12-12 कोसों तक कोई मनुष्य जिन्दा नही छोङा है | दूसरा भगवान आप अगर मेरी भक्ति से प्रसन है तोह मेरे पुत्र नही है मुझे आप जैसा पुत्र दीजिये | तब भगवान बोले जाओ तुम्हारा पहला पुत्र विरमदेव होगा तब अजमलजी बोले भगवान एक का क्या बड़ा क्या छोटा भगवान बोले दूसरा में खुद आपके घर आयुगा | अजमलजी बोले प्रभु आप आओगे हमें केसे पता चलेगा भगवान बोले गाँव के सारे मन्दिरों में अपने आप घण्टीयो बजने लग जाएगी दूसरा पानी के घड़े दुध में बदल जायेंगे | तीसरा तुम्हारें आगनं में कुम कुम के पगलिया नजर आयेंगे | इतना के कर भगवान ने अजमलजी को पानी के ऊपर चलते बहार भेज दिया अजमलजी बहार आके मैणादे को बात बताई भगवान ने मुझे पुत्र का वरदान दिया हैं दोनों खुची के साथ वापस आगये |
रामदेव जी का जन्म
द्वारकानाथ के वरदान अनुसार सन् 1406 में मैणादे ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम विरमदेव रखा | दूसरा विक्रम स्वत् 1409 चैत्र सुदी पांचम ने शनिवार को राणी मैणादे की कोख से रामदेव जी ने जन्म लिया उस समय भगवान बताए हुए निशानों के अनुसार नगर के सारे मंदिरों में घण्टीया बजने लगी पूरा गाँव रोशनी से समक उठा पानी के घङे दूध में बदल गए आगन में कुम कुम के पगलिया मंडे माता मैणादे और अजमलजी दोनों बहुत खुस हुए | रामदेव जी ने बस्पन में ही बाल लीला सरू कर दी |
बाबा रामदेवजी के अनेक प्रकार के पर्चो का वर्णन :-
रामदेव जी का बाल अवस्था में माता को प्रथम पर्चा
रामदेव जी विरमदेव दोनों भाई माता मैणादे की गोद में खेल रहे थे तभी दासी गायों का दूध लेके आई और मैणादे के हाथो में देके वो भी दोनों भाईयो को खेलता देखने लग गई| माता मैणादे दोनों भाईयो को दूध पिलाने के लिए दूध चूल्हे पर चढ़ा कर बच्चो के पास आकर बैठ जाती है | उधर दूध गर्म हो के बर्तन से बहार निकलने लग जाता है | तभी मैणादे की नजर दूध पर पड़ती है वो रामदेव जी को छोङकर दूध को नीचे रखने जाना चाहाती है | तभी रामदेवजी अपना हाथ दूध की और करते है बर्तन अपने आप चूल्हे से निशा आजाता हैं| यह बात पुरे नगर वासियों को पता चली वो सारे नगर के लोग महल में रामदेव जी को देखने आगए |
द्वितीय प्रसा रामदेवजी रोने लगे मैणादे ने सोचा बच्चा भूखा हो गया तभी | मैणादे के स्तनों से दूध की धारा निकली एक धारा पालने में सो रहे विरमदेव के मुख में दूसरी रामदेवजी के मुख में उसे देख वा खड़े सभी नगर वासी लोग अजमल जी के लाल का जयकारा लगाना चुरू कर दिया |
कपड़े के घोड़े को आकाश में उड़ायादर्जी को दूसरा पर्चा
रामदेव जी थोड़े बड़े हुए एक दिन एक घुङसवार को देखकर रामदेव जी बाल हठ पकड़ लिया मुझे भी घोड़ा चाहिए माता मैणादे और अजमल जी ने रामदेव जी को मनाने के लिए खूब जतन किए रामदेव जी नही माने अजमल जी दरजी को बुलाकर रामदेव जी के लिए कपड़ो का सुंदर घोड़ा बना के लाओ दरजी वापस घर गया और एक सुंदर घोड़ा बना के लाया रामदेव जी हठ त्याग कर उस पर सवारी करने लगे रामदेव जी जैसे ही पीठ पे सवार हुए कपड़े का घोड़ा हिन हिनाते हुए आकाश में उड़ने लगा यह देख सभी लोग अचम्भित हो गयें कपड़े का घोड़ा आकाश में कैसे उड़ रहा है | अजमल जी ने दरजी को काल कोठरी में बन्ध कर दिया तुमने जादुई घोड़ा बनाया हैं | तभी रामदेव जी घोङा लेके काल कोठरी में पहुचे और दरजी को बोले तुमने पुराने कपड़े का घोड़ा बनाया इसलिए तुझे यह सजा मिली| आगे से किसी को पुराने कपड़े की कोई चीज बना के मत देना जा तुझे माफ़ किया तुझे आशीश देता हु जहा मेरी पूजा होगी वा तेरे कपड़े के घोड़े की भी पूजा की जाएगी | तब से रामदेव जी के साथ कपड़े के घोड़े की पूजा की जाती हैं |
भैरव राक्षस का अन्त तीसरा पर्चा
एक दिन रामदेवजी विरमदेव जी गांव के बच्चो के साथ जंगल में गेंद खेलने गयें खेल से पहले सभी बच्चो ने नियम बनाया जो दूर फेकेगा वो लेने जायेगा | नियम बना कर खेलने लगे एक एक करके सारे आउट हो गए आखरी बारी रामदेव जी की आयी रामदेव जी ने गेंद को जोर से फेका गेंद बहुत दूर चली गई | बाकी साथी रामदेव जी को कहने लगे आपने दूर फेकी है लेके आईये| तब रामदेव जी बोले आप चिंता मत करो गेंद जाहा भी होगी में लेके आयूंगा| रामदेव जी गेंद को खोजते-खोजते शाम के समय एक कुटियाँ में पहुंचे वाहा पर देखा तोह एक साधू ध्यान में बैठा हैं | रामदेव जी ने साधू को प्रणाम किया तोह बालिनाथ की ध्यान से आखें खुलीं सामने देखा एक चंद्रमा जैसा तेजस्वी बालक खड़ा बालिनाथ ने पुछा तुम कोन हो कहा से आये हो तब रामदेव जी ने बताया हम खेल रहे थे हमारी गेंद इस तरफ आगई में उसको खोजने आया हु | तब बालिनाथ जी बोले तुमे पता नही या पे भैरव राक्षस रहता हैं वो इंसानों और जीवो को मार के खाजाता है | उसके आने का समय हो गया है तुम या से चले जाओ नही तोह तुमे खाजायेगा| रामदेव जी बोले में बालक हु मुझे रात को डर लगता हैं | में सुबह चला जाऊगा इस बात को सुनकर बालिनाथ जी ने रामदेव जी को कुटियाँ में गुदड़ी ओढ़ाकर सुला दिया बोले कुछ भी होजाए आवाज मत करना | रात्रि के समय भैरव बालिनाथ की कुटियाँ में आया बोला गुरुदेव मुझे यहाँ पे मनुष्य की सुग्न्ध आरही हैं बताओ काहा हैं | बालिनाथ जी बोले 12-12 कोस तक तुमने किसी को नही छोङा मनुष्य काहा से आएगा | भैरव ने कुटियाँ में सब और देखा कुछ नहीं दिखा तो बोला गुरुदेव बताओ नही तोह में आपको खा जाऊगा | तब रामदेव जी के मन में विचार आया गुरु के दिए हुए आदेश के अनुसार बोल नहीं सकता| गुदड़ी तो हिला सकता हु रामदेव जी ने जैसे ही गुदड़ी हिलाई भैरव की नजर गुदड़ी पे पड़ी गुदड़ी को खींचने लगा भैरव खींच ता जा रहा है गुदड़ी द्रोपदी के चीर की तरह बढती जा रही है | खींचते- खींचते गुदड़ी का पहाड़ बन गया खतम ही नही हो रही | अन्त में थक कर भैरव वा से पहाड़ी की और भागने लगा| रामदेवजी उठकर बालिनाथ जी से आज्ञा लेके भैरव के पिछे भागे पहाड़ी के पास भैरव को पकड़ा और मारने लगे भैरव क्षमा यासना करने लगा बोला में यहाँ से चला जाऊगा तब रामदेव जी ने अपने भाले के ऊपर लेके चोरों दिशा में घुमाया बोले जा मेरा नाम नही हैं वा उतर जाना तुमे छोड़ दुगा भैरव ने चोरों दिशा देखा कहीं ऐसा स्थान नही जा राम का नाम नही तब रामदेव जी भैरव को जमीन में गाड़ने लगे तब भैरव बोला में खाऊगा क्या तब रामदेव जी कहा रूणिचा में मेरी पूजा करने आए सवा लाख मनुष्य एक साथ इकट्ठे होगें तब एक मनुष्य तुम्हारा भोजन बनेगा | रामदेवरा मेले में जिस दिन सवा लाख लोग इकट्ठे होते हैं तब एक मनुष्य रामसरोवर तालाब में भैरव का भोजन बनता हैं |

सारथीया खाती को चौथा पर्चा
सारथीया रामदेवजी का एक बाल मित्र था एक दिन सवेरे खेल के समय खाती पुत्र सारथीया को मित्रो के साथ खेलते नही देख कर रामदेवजी अपने मित्र के घर पहुचें और उनकी माँ से सारथीया के बारे में पूछा तब रोतीं बिलखती हुई बोलेने लगी की आपका मित्र अब इस संसार में नही रहा | अब केवल उसकी यादे रही है तभी रामदेव जी की नजर उसकी मर्त देह पर पड़ी रामदेव जी उसकी देह के पास जाके उसका हाथ पकड़ कर बोले हे मित्र इतनी गहरी नीद में क्यों लेटा है क्या मुझसे नाराज है तुझे मेरी कसम है तुम्हेँ अभी मेरे साथ खेलने को चलना हैं | इतना बोल कर रामदेवजी ने हाथ खीचा सारथीया उठकर बोला माँ और रामदेव जी के साथ खेलने चला तब सभी लोग रामदेव जी की जय जय करने लगे |
रूणिचा की स्थापना
भैरव को मारकर रामदेव जी ने सन् 1425 में भैरव गुफा से 12 कि.मी उतर दिशा में कुंआ खुदवा कर रूणिचा गाँव की स्थापना की| ओर रामदेव जी ने नेजार धर्म की नीव रखी जिसमे ऊँच नीच जात-पात का भेद भाव मिटा कर रामदेव जी सबको एक समान मानते थे |
गाय के बछङे को जिन्दा करना पाचवां पर्चा
रामदेव जी अपने भाई और भाभी का बहुत समान करते थे एक दिन रामदेव जी घोड़ा लेके घुमने गए हुए थे पिसे विरमदेव जी के दहेज में मिली हुई कामधेनु गाय का बछङा अचानक मर गया | यह बात रामदेव जी की भाभी को पता चली वो रोने लगी और रामदेव जी को पुकार ने लगी आप तो अन्तरयामी हो पल पल की जानते हो इस बछङे को जिन्दा करो नही तोह में अपने प्राण त्याग दूंगी | यह करुण भरी पुकार सुनके रामदेव जी महल आके अपनी भाभी से बोले आप क्यों रो रही हैं गाय का बछङा जिन्दा है वो अपनी माँ का दूध पि रहा हैं| यह बात सुनकर विरमदेव जी और उनकी पत्नी ने जाके देखा बछरा जिन्दा हैं |
सेठ की डूबती नाव को बचाया छठा पर्चा
रूणिचा में एक सेठ रहता था वो प्रभु का गुण गान करता था एक दिन रामदेव जी सेठ के पास गए और आदेश दिया तुम प्रदेश जाओ और व्यपार करो सेठ रामदेव जी की बात सुनकर बोला प्रभु प्रदेश में तोह नदी नाले समुद्र है में वाह कैसे जायुगा जायुगा तो क्या पता में वापस जिन्दा आयुगा या नही | तब रामदेव जी बोले जब भी तुम विपदा में हो मुझे याद कर लेना | यह बात सुनकर सेठ प्रदेश गया वाहा व्यपार चरु किया एक साल में सेठ का नाम बड़े-बड़े हीरों के व्यपारीयो के साथ जुड़ने लगा| एक दिन सेठ को बालको की याद आने लगी सेठ रूणिचा आने की तैयारी करने लगा सेठ के मन में विचार आया रूणिचा जायुगा तोह रामदेव जी बोलेंगे मेरे लिए क्या लेके आया है | सेठ ने रामदेव जी के लिए हीरों से जड़ा हुआ बड़ा भारी गले का हार खरीदा और नाव में बैठकर समुद्र के रास्ते के लिए रवाना हुआ | सेठ ने नाव में बैठें-बैठें मन में विचार किया इतने भारी हार का रामदेव क्या करेंगे | इस को बेचकर में किसी बड़े शहर में और धन कमा लूँगा | प्रभु तोह अन्तरयामी है सब जानते थे| रामदेव जी सेठ का माया के प्रति मोह देखकर समुद्र में तूफान लादिया तूफान इतना भयंकर नाव समुद्र में डूबने लगी | सेठ देवी देवताओं से प्राथना करें कोई सेठ की सहायता के लिए नही आये तूफान बढ़ता ही जा रहा | तभी सेठ को रामदेव जी दिया हुआ वचन याद आया सेठ रामदेव जी को पुकार ने लगा हे प्रभु आप तोह अन्धों को भी आखें देते हो कोढीयों की काया मिटा ते हो मुझे माफ करो में आपके भरोसे आया हु | तब रामदेव जी सेठ की अरदास सुनके अपना हाथ आगे बढाया सेठ की नाव को किनारें लाए |
लखी बनजारे को सातवाँ पर्चा
लखी नाम का एक बनजारा था वो मिश्री के व्यपार के लिए माना हुआ था उसकी मिश्री को दूर-दूर तक पसंद किया जाता था एक दिन लखी-बनजारा मिश्री को बैल गाड़ी में लाद कर रूणीचा गाँव से होते हुए आगे जा रहा था तब रामदेवजी ने बनजारे से पूछा इस में क्या हैं लखी ने बिक्री के डर से बता दिया इसमें नमक हैं | इतना बोल कर लखी आगे दुसरे गाँव में किसी सेठ को मिश्री बेसने के लिए चला गया वाहा सेठ की दुकान पर जाकर बोरी खोली अन्दर मिश्री की जगह नमक बनजारा वहा से दोड़ा-दोड़ा रूणीचा आया आकर के रामदेवजी के पैरो में गिर के क्षमायाचना करने लगा और कभी असत्य न बोलने की कसम खाई | तब रामदेवजी ने नमक को वापस मिश्री में परिवर्तित किया | इस प्रकार रामदेव जी के चरचे दुनिया के कोने कोने में होने लगे यह बात बादशाहो और पीरों को अच्छी नही लगीं |
पांच पीरों को आठवा पर्चा
रामदेव जी की चर्चा सब और होने लगी ये बात मुसलमानों और फकीरों को नही भाई हिन्दू धर्म को रामदेव जी आगे बढ़ा रहे है धर्म जाती किसी को न मानकर सब को एक सम्मान मान रहें हैं | यह बात मक्का मदीना तक पहुची तब मक्का से पाचँ पीर रामदेव जी की परीक्षा लेने के लिए आए उस समय रामदेवजी अपने लीले घोड़े पर असवार होकर रूणीचा भ्रमण के लिए बाहर निकले सामने पाचँ पीरो को आता देखा रामदेव जी घोड़े से नीचे उतरकर पेड़ के निचे बैठ गए | पीर रामदेव जी के पास आकर पुचा रूणीचा में रामदेवजी रहतें हैं उनसे मिलना हैं उनका घर काहा हैं | रामदेवजी ने जवाब दिया रूणीचा में रामदेव एक ही हैं वो में हु | तब पीर रामदेवजी की और देखकर मन में वीचार किया ये बोल रहा है रूणीचा में एक ही रामदेव हैं ये साधारण सा बालक लग रहा हैं | तब रामदेव बोले आप हमारे मेहमान बन के आये हो आप पहले बेठो पीर बैठकर पीपल के दातुन निकाले और दातुन कर के उसी जगह गाङे उसी समय पाँच पिपली उग पेड़ में परिवर्तित हो गई जो आज भी रामदेवरा से 10 किलोमीटर दूर स्थित हैं | फिर रामदेव जी बोले आप बहुत दूर मक्का से आये हो थके हुए हो और आपको भूक भी लगी होगीं | रामदेव पीरों को साथ लेके घर आए भोजन की वव्स्था की पीरों को बोला आईऐ भोजन कीजिये रामदेव जी ने पीरों के बैठ ने के लिए एक पीर बैठें इतनी रजाई लगाई पीर बोले हम पाँच एक रजाई पर बैठ कर भोजन करते हैं रामदेवजी जी बोले आप बेठो पहले एक पीर बैठा रजाई और लम्बी हो गई ऐसे ही करके पाँचो पर बैठें भोजन लेके आये परोसने के लिए पीर बोले हमारे भोजन करने वाले कटोरे हम मक्का में भूल कर आगए | यह बात सुनकर रामदेवजी ने अपना हाथ आगे बढाया पाँचो कटोरा रामदेव जी के हाथ में रामदेवजी ने कटोरा पीरों के सामने करके बोले अपना- अपना कोटरा पहचान कर लेलो| तब पाँचो पीर रामदेवजी के चरणों में पड़ के बोले हम पीर हैं आप पीरों के पीर हैं तब से रामदेव जी का नाम रमापीर पड़ा हैं ये उपाधि पीरों ने दी हैं |
पुंगलगढ़ के पङिहारों का गर्व नाश नौवां पर्चा
रामदेवजी की बहिन सुगना का विवाह पुंगलगढ़ के कुवर किसनसिंह के साथ हुआ था | पड़ीहारों को जब पत्ता चला रामदेवजी छोटी जाती के लोंगो के साथ बैठ कर भजन कीर्तन और ज्ञान की बाते करते है तोह इन्होने रामदेवजी के रूणीचा आना जाना शुगना का बंद कर दिया | रामदेवजी के विवाह में पाठ बीठाई का कार्य शुरु हुआ तब रामदेवजी ने अपनी माता की आखोँ में आसू देखे रामदेवजी ने अपनी माँ से बोले घर में सब खुसी मना रहे हैं माँ आपकी आखों में आसू तब उन्होंने जवाब दिया जिस बहन के रामदेव विरमदेव जैसे भाई होते हुए मेरी सुगना इस विवाह में रूणीचा नही आई तोह में सुगना को जीवन भर नही देख पाऊगी | रामदेवजी इतनी बात सुनकर रतने राईके को सुगना को लेने पुगलगढ़ भेजा | रतना वाहा जाके राजा को रामदेवजी के विवाह में सुगना को भेजने की बात बताई | पड़ीहारों ने सुगना को भेजने की जगह रतने को काल कोठरी में बंद कर दिया | यह बात सुगना को पता चली सुगना मन ही मन विलाप करने लगी ये बात रामदेवजी ने अपनी दिव्य सक्ती से जानली और तुरन्त अपनी दिव्य सक्ती से सेना तैयार कर के लीले घोड़े पर सवार होकर पुंगलगढ़ पहुच कर युद्ध का शंखनाद कर दिया | पुंगलगढ़ के पड़ीहारों और रामदेवजी की सेना के बीच युद्ध हुआ रामदेवजी की दिव्य सेना के आगे पुंगलगढ़ कपित हो गया | पड़ीहारों ने हार मान कर रामदेवजी के आगे आत्मसमर्पण कर दिया | रामदेवजी ने उनको क्षमा कर के समझोता स्वीकार किया | और रामदेवजी तुरंत रूणीचा लोटै गए | पड़ीहारों ने सुगना को रतने के साथ रथ में बैठा कर रूणीचा भेजा |
नेतलदे की पगुता दूर दशवा पर्चा
रामदेवजी का विवाह अमरकोट के राजा दलजी सोढा की पुत्री नेतलदे के साथ हुआ| नेतलदे रुख्मणि का ही अवतार थी | श्राप के कारण नेतलदे पैरो से पंगु थी | जब रामदेव जी के फेरे लेने का समय आया तोह रामदेवजी अलोकिक सक्ती से नेतलदे की पगुता दूर हो गई सारे लोग रामदेवजी की जय जय कार करने लगे |
नेतलदे की सखियों को ग्यारहवां पर्चा
रामदेवजी विवाह के बाद कुंवर कलेवे के लिए भीतर पधारे तब रानी नेतलदे की सहेलियों ने विनोद के लिए थाल में भोजन की जगह मर्त बिल्ली रख कर ऊपर वस्त्र डाल दिया | जब थाल रामदेवजी के स्ममुख रखा रामदेवजी ने जैसे ही वस्त्र उठाया बिल्ली जीवित होकर दोड़ गई| और रामदेवजी के चमत्कार से पुरा महल बिल्लियों से भर गया |
सुगना बहन के बालक को पुनर्जीवित बांरवा पर्चा
जिस रात अमरकोट में रामदेवजी का विवाह हुआ, उसी रात सर्प के काटने से सुगना बाई के पुत्र की म्रत्यु हो गई | अन्तरयामी भगवान रामदेवजी ने सुगना का दुःख जान लिया और वे नेतलदे रानी एव बारात सहित रूणीचा पहुचें | सुगना ने अपना दुःख किसी को नही बताया | रामदेवजी और रानी नेतलदे को बधाने के लिए सुगना नही आई तोह रामदेवजी ने सुगना को बुलाया और सुगना के पुराने वस्त्र देख कर रामदेवजी ने पुछा उदासी का कारण क्या हैं | कुछ देर तक सुगना मोन रही | लेकिन दुःख के आसू रोके नही रुके सुगना कुछ नही बोल पाई सुगना का रो-रो कर कंठ बेठ गया | रोहति हुई अपने पुत्र को पुकारने लगी| तब रामदेवजी बधावे से पूर्व ही महल के भीतर गए और अपनी दिव्य सक्ती से अपने मर्त भान्जे की देह को स्पर्स किया, वह पुनर्जीवित हो गया | और मामा के साथ खेलने लगा |
बाबा रामदेवजीने जीवत समाधि वि. सं. 1442 को ली रामदेवजी की समाधि के साथ एक नाम और जुड़ा हुआ हैं | वो हैं रामदेवजी की अनन्य भक्त डालीबाई इतिहासकारो का कहना हैं जब डालीबाई जगल में गायों के बछङे चरा रही थी तब उन्हें रूणीचा में अलग-अलग वाधयन्त्रो की ध्वनी सुनाई पड़ी तब डालीबाई ने एक पथिक से पुछा तब उसने बताया की रामदेवजी स्वर्ग पधार रहे हैं | यह सुनकर डालीबाई ने गाय के बछडो को बोला आप को रामद्वेजी की कसम हैं शाम होते ही घर चले जाना | इतना बोल कर डालीबाई दोड़ती-दोड़ती रूणीचा पहुची वहा आकर देखा तोह रामसरोवर पर रामदेवजी की समाधि खोदी जा रही हैं | डालीबाई वाहा आके अपने इस्ट देव रामदेवजी से बोली यह समाधि मेरी हैं | यहाँ में समाधि लुंगी यह बात सुनकर वाहा खड़े लोग बोले आपकी समाधि हैं इसका क्या प्रमाण है | तब डाली बाई ने बताया थोड़ा और खोदो इसके अन्दर अगर आटी, कंगन, डोरा, निकले तोह यह मेरी समाधि हैं | थोड़ा और खोदने पर जो डाली बाई ने बताया वही प्रमाण निकले | जब ये सब निकले तब रामदेवजी ने कहा सज्जनों यहाँ डाली बाई समाधि लेगी तब डाली बाई ने रामदेव जी से वाहा समाधि लेने की आज्ञा मागी और रामदेवजी की आज्ञा से डाली बाई ने वाहा पर समाधि लेली | तब रामदेवजी ने कहा में आज से तीन दिन बाद इग्यारह को यानी तीसरे दिन समाधी लूँगा | इधर डाली बाई के घर वालो को सूचना मिली तोह वोह भागते भागते आए तब डाली ने उनसे आशिर्वाद लेके सत्य वचन दिए की जो भी भक्त श्रधा पूर्वक मेरी पूजा करेगा उनके अन धन की कोई कमी नही रहेगी मेरी पूजा हमेशा रामदेव जी के साथ होगी जो लोग केवल रामदेव जी की पूजा करेंगे मेरा नाम नही लेंगे उनका सामान्य लाभ होगा राम नाम का स्मरण करने से कल्याण होगा| इतना बोलके डाली बाई उनके सामने समाधि में लींन हो गयी |

उससे दो दिन बाद रामदेवजी की समाधि खुदने लगी रामदेव जी की समाधि में पीताम्बर, झालर, शख, खडाऊं निकले तो दर्शक जनता में रामदेव जी से बिसङ जाने का विचार जाग गया रामदेव जी ने उनको समझाया जो आता हैं उनको एक दिन जाना ही हैं | भाद्रपद शुक्ल इग्यारह को संवत् 1442 को रामदेव जी ने अपने हाथ में क्षीफल लेकर सभी बड़े बुजुर्गो को प्रणाम किया सभी ने रामदेव जी की अंतिम बार पूजन किया | रामदेव जी ने समाधी में खड़े होकर कहा प्रति महीने की शुक्ला पक्ष की पूजा पाठ और रात्रि जागरण करना | और मेरी समाधि के दर्सन पूजन में किसी प्रकार का भेद भाव मत रखना प्रति वर्ष भाद्र पद में मेरे जन्मोत्सव और अन्तर्ध्यान होने की स्मरति में एकम से इग्यारह के दिन मेरी समाधि स्थल पर मेला भरेगा जितना भी प्रसाद चढ़े उससे भैरव की गुफा पर चढ़ा देना अन्यथा एक लाख भक्तो के इक्कठे होने पर भैरव जल म्रत्यु द्वारा नर भक्ष बन कर अपनी भेंट एक मनुष्य को खा जाएगा |
मेरी समाधि के बाद चाहे कोई मनुष्य या देवता भी आ जाए परन्तु मेरी समाधि को वापिस मत खोदना| जो भी भक्त गूगल, धुप, घी, की ज्योति और सफ़ेद ध्वजा चड़ाऐगा उन सब भक्तो की मनोकामनाऐ पर्ण होगी इस प्रकार रामदेव जी अपने माता पिता को प्रणाम करके रतन, कटोरा, अभय, पीताम्बर इन सब को साथ लेके ॐ का जाप करते हुए अन्तर्ध्यान हो गए | आस पास के लोग रामदेव जी के समाधि के दर्सन करने आने लगे |

समाधि लेने के बाद ह्र्बुजी को दर्सन
रामदेव जी के मोसेरे भाई हरजी सांखला जो रामदेव जी के परम भक्त थे उन्होंने समाधि लेने के समाचार सुने तो अपने घोड़े को सजाकर दर्सन करने की ईसा से घर से रवाना हो गये | घोड़े को दोङाते हुए रुणिचा की तरफ आ रहे थे की रास्ते में अकस्मात् रुणिचा के उतर-पूर्व में खड़ी एक जाल उससे आज की तारीख में जालोखा कहते हैं | उस जाल के पास पहुचे तो रामदेव जी घोङे को चराते हुए मिले, ह्र्बुजी अपने घोड़े से उतरे रामदेव जी के चरणों में गिरकर दंडवत प्रणाम किया | और बोले मेने अमंगल समाचार सुने थे| रामदेव जी आशंकाओं को छुपाते हुए कहा भाई संसार सागर हैं, लोग अपनी इच्छा से चाहे जैसे कहते सुनते हैं | अच्छा आप घर चलो में घोड़े को लेकर आ रहा हुं | ह्र्बुजी घर पहुचे तो सब लोग शोक में बैठे हुए देख ह्र्बुजी बोले आपके क्या अमगल हुआ हैं | रामदेव जी तो अभी मुझे झलोखा का के पास मिले हमने काफी देर तक बाते की| यह सब सुनकर अजमल जी बोले रामदेव जी को समाधि लिए हुए आज तीन दिन हो गये | तब सभा में आपस में इकठे होकर सब बात चिंतन करने लगे और ह्र्बुजी की बात सुनकर सब लोग रामसरोवर की पाल पर आके समाधी खोदने लगे तोह पावड़ा उल्टकर समाधि खोदने वाले के सिर में लगने लगा फिर भी नही माने कुछ समाधी को खोदा तभी आकाश से भविष्यवाणी हुई तुवर वंशी क्षत्रियो मेने पहले ही आपको कह दिया था चाहें कोई भी बोले मेरी समाधि मत खोदना | यदि आप मेरी समाधि नही खोदते तो हर पीढ़ी में पीर पैदा होता लेकिन अब ये तो नही होगा| मेरा आपको वरदान हैं कि मेरी समाधि पर जो भी प्रसाद चढ़ेगा उससे सब बाट कर खाना| यह सुनकर सभी पस्ताप करने लगे और समाधि ढक दी और यह वाणी आज भी सत्य हो रही है तंवर आज भी मंदिर पर ही आश्रित है |